पाँच साल की लम्बी, दर्द भरी जिंदगी के बाद, बेटी पीहर लौट आई थी। उसके चेहरे पर थकान की लकीरें थीं, आँखों में दर्द और दिल में उदासी। घर की चौखट पर खड़ी वह महसूस कर सकती थी कि उसकी तकलीफें अब अपने दायरे में लौट आई थीं। माँ की आँखों में उम्मीद और सवालों का सैलाब था, लेकिन पिता के चेहरे पर बस एक अजीब-सी खामोशी छाई थी।
घर में बैठते ही पिता की निगाहें जैसे उसके मन में झाँकने लगीं। माँ ने भी कई सवाल पूछे, मगर बेटी के थके हुए चेहरे को देखकर उन्होंने कुछ नहीं कहा। पिता के सवालों का इंतजार था – वह सवाल जो शब्दों में नहीं, बल्कि उनकी आँखों के भीतर छिपे थे।
अतीत का दर्द
“बेटी, सच-सच बता, आखिर क्या हुआ?” पिता ने धीरे से कहा, पर उनकी आवाज़ में एक दबा हुआ तूफान था।
बेटी का गला भर आया। उसने नजरें झुकाए हुए धीरे-धीरे अपनी पीड़ा को शब्दों में बदलना शुरू किया, “पिता जी, ससुराल में मुझे इंसान नहीं, बस एक काम करने वाली समझा जाता है। मेरी छोटी-सी बच्ची है, जो दूध पीती है, लेकिन मुझे खेतों में काम करने के लिए भेजा जाता है, और घर लौटने पर भी उसे गोद में लेने की इजाज़त नहीं होती। सास के ताने और अपमान इतने बढ़ गए हैं कि अब और बर्दाश्त नहीं होता।”
पिता की आँखों में चिंता और गुस्से का मिश्रण था। “और उसके पति का क्या? वह क्या करता है?” पिता ने सवाल किया।
“वो भी माँ के डर से कुछ नहीं कहता। वह खुद को बेबस मानता है और कहता है कि यही हमारी किस्मत है, हमें इसे सहना ही होगा,” बेटी ने थकी आवाज़ में कहा। “कई बार मैंने उसे बताया कि मुझे बेटी के साथ समय चाहिए, लेकिन वह हमेशा कहता है कि यह मेरा कर्तव्य है, मुझे सहन करना चाहिए।”
माँ ने बेटी के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, “बेटा, ये सब सहना पड़ता है। हमारी माँ और दादी भी तो सहती आई हैं। हमारी किस्मत में यही लिखा है।”
लेकिन पिता ने कुछ और ही सोचा था। उनकी आँखों में आँसू थे, लेकिन उनका चेहरा कठोर था। उन्होंने कहा, “मुझे यह मंजूर नहीं। मैंने अपनी बेटी को तकलीफ सहने के लिए नहीं, बल्कि इज्जत की जिंदगी के लिए भेजा था।”
निर्णायक फैसला
कुछ ही देर बाद पिता ने बेटी के ससुराल वालों को फ़ोन किया। स्वर में कठोरता थी, “मुझे आपसे बात करनी है। जितनी जल्दी हो सके, आप अपने बेटे के साथ यहाँ आ जाइए।”
उस रात घर में तनाव बढ़ता जा रहा था। बेटी का दिल तेज़ी से धड़क रहा था, सोच रही थी कि क्या उसके पिता उसके लिए खड़े रहेंगे या ससुराल वालों की तरह उसे भी छोड़ देंगे।
अगले दिन सुबह होते ही, बेटी का पति, उसकी सास और ससुर घर आ पहुँचे। बातचीत के लिए कमरे में सभी इकट्ठे हुए। पिता ने सबसे पहले अपनी बेटी को पास में बैठाया, जैसे यह जताना चाहते हों कि वह उसके साथ हैं।
बातचीत की शुरुआत उसकी सास ने ही की। वह गुस्से से बोलीं, “देखिए, हमारी बहू अगर खेतों में काम न करे, ढोर-डंगर न देखे, तो क्या उसे आलते में बिठाकर पूजा करेंगे?”
पिता का चेहरा गुस्से से तमतमा उठा। उन्होंने गहरी साँस लेते हुए जवाब दिया, “हम पूजा की बात नहीं कर रहे। बस इंसानियत का हक मांग रहे हैं। मेरी बेटी एक बच्ची की माँ है, और वह दूध पीती है। उसे अपनी बेटी के साथ समय बिताने का हक है। आप लोग उसे बहू नहीं, बल्कि एक नौकरानी की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। यह किसी भी माँ-बाप के लिए असहनीय है।”
उनकी बातों पर ससुराल वालों ने मुँह फेर लिया, जैसे उनकी कोई गलती नहीं थी। बेटी का पति भी सिर झुकाए चुपचाप बैठा रहा। वह अपनी माँ की बात का समर्थन करते हुए बस यह कह पाया, “यह तो हर बहू का फर्ज़ होता है।”
पिता ने गहरी नजर से अपने दामाद को देखा और कहा, “अगर तुममें जरा भी इंसानियत होती, तो अपनी पत्नी की इज्जत करते। तुमने उसकी तकलीफ कभी नहीं समझी। इसलिए मैंने फैसला किया है, अब मेरी बेटी तुम्हारे साथ वापस नहीं जाएगी। उसकी जिंदगी का इतना हिस्सा कुर्बान कर दिया, अब और नहीं।”
कमरे में एक सन्नाटा छा गया। बेटी की सास एक बार फिर गुस्से में भड़क उठीं, “तो अब इसका मतलब है कि आप अपनी बेटी को अलग कर देंगे? हमारी जमीन, संपत्ति और घर का हिस्सा भी माँगेंगे, है ना?”
पिता ने अपने निर्णय को स्पष्ट करते हुए कहा, “जी हाँ। मेरी बेटी को जमीन में उसके नाम का चौथा हिस्सा मिलेगा और मकान भी। अब आप अपने बेटे की दूसरी शादी करना चाहते हैं तो कर लीजिए। मैं अपनी बेटी का सहारा बनूँगा, उसे उसकी इज्जत दिलाऊंगा।”
पिता का गर्व और बेटी का सहारा
बेटी ने यह सब दरवाजे की ओट से सुना। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। अपने पिता के मजबूत कंधे और निश्चय को देखकर वह अपने दर्द को भूल चुकी थी। पिता ने उसके पास आकर उसके सिर पर हाथ फेरा और कहा, “बेटी, तेरी शादी का यह मतलब नहीं कि मैंने तुझे अकेला छोड़ दिया। तू मेरी शान है, मेरा गर्व है।”
बेटी की आँखों से छलकते आँसू पिता के सीने में समा गए। उसने पिता के गले लगकर फफक कर रोना शुरू कर दिया। पिता और बेटी के बीच एक ऐसा अनकहा रिश्ता था, जो समाज के हर बंधन और परंपरा को चुनौती दे रहा था।
इस फैसले से ससुराल वालों के चेहरे उतर गए थे। वह सोच रहे थे कि पिता एक बंधी हुई परंपरा में रहेंगे, लेकिन उन्होंने उम्मीदों के उलट एक सख्त निर्णय सुनाया। ससुराल वाले कोई जवाब दिए बिना निकल गए। बेटी को पहली बार अपने पिता का वह रूप देखने को मिला जो उसे सहारा और सुरक्षा का अहसास करा रहा था।
पिता ने उसे आश्वासन दिया, “बेटा, मैंने तुझे इस दुनिया में अकेला नहीं छोड़ा है। तेरी इज्जत और आत्मसम्मान की रक्षा करना मेरा कर्तव्य है, और मैं तुझे इसका हक दिलाऊंगा। अब तू अकेली नहीं है, मैं हमेशा तेरे साथ हूँ।”
इस तरह, पिता ने समाज की परंपराओं के खिलाफ जाकर अपनी बेटी के आत्मसम्मान को सुरक्षित किया और उसे एक नई जिंदगी की शुरुआत का मौका दिया।