भारत की संसद केवल कानून बनाने की जगह नहीं है।
यह वह मंच है जहाँ देश का इतिहास, वर्तमान और भविष्य एक साथ बोलता है।
हाल ही में लोकसभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण केवल एक राजनीतिक भाषण नहीं था।
वह संविधान, लोकतंत्र और कांग्रेस की ऐतिहासिक भूमिका पर एक गंभीर आरोप-पत्र था।
यह लेख उसी भाषण के आधार पर, तथ्यों और संदर्भों के साथ, यह समझाने का प्रयास है कि
प्रधानमंत्री ने क्या कहा, क्यों कहा, और इसका देश के लोकतंत्र के लिए क्या अर्थ है।

1. “कांग्रेस के माथे का पाप” – एक वाक्य, पूरा इतिहास
प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण की शुरुआत एक बहुत कड़े वाक्य से की:
“कांग्रेस के माथे पर लोकतंत्र का जो पाप है, वह कभी नहीं धुलेगा।”
यह कोई भावनात्मक आरोप नहीं था,
बल्कि भारत के लोकतांत्रिक इतिहास के सबसे अंधेरे अध्यायों की ओर इशारा था।
यह पाप क्या है?
- संविधान बनने के तुरंत बाद उसमें मनमाने संशोधन
- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला
- न्यायपालिका को कमजोर करना
- आपातकाल के दौरान लोकतंत्र का गला घोंटना
प्रधानमंत्री का संदेश साफ़ था—
लोकतंत्र पर सबसे बड़े हमले बाहर से नहीं, सत्ता के भीतर से हुए।
2. संविधान का सम्मान: शब्दों में नहीं, आचरण में
प्रधानमंत्री मोदी ने अटल बिहारी वाजपेयी जी का उदाहरण दिया।
उन्होंने बताया कि कैसे 26 नवंबर 2000 को,
संविधान के 50 वर्ष पूरे होने पर राष्ट्र को एकजुट करने का प्रयास किया गया।
इसके बाद उन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए
संविधान गौरव यात्रा का अनुभव साझा किया—
- संविधान की प्रति हाथी पर रखी गई
- मुख्यमंत्री स्वयं पैदल चला
- संदेश साफ़ था: संविधान सत्ता से ऊपर है
यह प्रतीकात्मक नहीं था।
यह एक विचार था—
संविधान का सम्मान भाषणों से नहीं, व्यवहार से होता है।
3. 1951: जब चुनी हुई सरकार भी नहीं थी, फिर भी संविधान बदला गया
प्रधानमंत्री ने एक बेहद गंभीर तथ्य याद दिलाया।
1951 में:
- देश में पूर्ण रूप से चुनी हुई सरकार नहीं थी
- लोकसभा और राज्यसभा का गठन पूरा नहीं हुआ था
- राज्यों में चुनाव नहीं हुए थे
इसके बावजूद,
ऑर्डिनेंस के ज़रिए संविधान में संशोधन किया गया।
और सबसे बड़ा हमला हुआ—
👉 अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर।
यह सवाल उठता है:
- जब संविधान सभा में यह बात स्वीकार नहीं हुई
- तो पीछे के दरवाज़े से इसे क्यों बदला गया?
यहीं से शुरू हुई वह परंपरा,
जिसे प्रधानमंत्री ने “संविधान के साथ छल” कहा।
4. नेहरू जी की चिट्ठी और संविधान से टकराव
प्रधानमंत्री मोदी ने पंडित नेहरू द्वारा मुख्यमंत्रियों को लिखी गई चिट्ठी का ज़िक्र किया।
उस चिट्ठी का भाव था:
“अगर संविधान हमारे रास्ते में आए, तो उसमें बदलाव होना चाहिए।”
यह वाक्य अपने आप में बहुत कुछ कहता है।
संविधान का अर्थ यह नहीं कि
वह सत्ता की राह का रोड़ा बने।
संविधान का अर्थ है—
👉 सत्ता की सीमाएँ तय करना।
जब सत्ता को संविधान से ऊपर रखा जाता है,
तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाता है।
5. चेतावनियाँ जिन्हें नज़रअंदाज़ किया गया
यह भी महत्वपूर्ण है कि उस समय
देश चुप नहीं था।
- राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने चेताया
- लोकसभा अध्यक्ष ने आपत्ति जताई
- आचार्य कृपलानी, जयप्रकाश नारायण जैसे नेताओं ने विरोध किया
लेकिन सत्ता ने किसी की नहीं सुनी।
यहाँ सवाल उठता है—
👉 जब संविधान के रक्षक ही उसे कमजोर करने लगें,
तो लोकतंत्र बचेगा कैसे?
6. 75 संशोधन: सुधार या सत्ता की सुविधा?
प्रधानमंत्री ने बताया कि लगभग 75 वर्षों में
संविधान में 75 बार संशोधन किए गए।
संशोधन अपने आप में गलत नहीं हैं।
लेकिन सवाल है—
- क्या ये संशोधन जनता के हित में थे?
- या सत्ता को सुरक्षित रखने के लिए?
कई संशोधनों का उद्देश्य साफ़ था—
👉 न्यायपालिका की शक्ति को सीमित करना।
7. 1971 और इंदिरा गांधी: न्यायपालिका पर सबसे बड़ा हमला
1971 में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले को
संविधान संशोधन के ज़रिए पलट दिया गया।
इस संशोधन ने:
- संसद को असीमित शक्ति देने का प्रयास किया
- अदालतों को लगभग असहाय बना दिया
यह लोकतंत्र के संतुलन पर सीधा हमला था।
इसके बाद आया वह काला अध्याय—
👉 आपातकाल (1975)
8. आपातकाल: जब संविधान केवल किताब बन गया
आपातकाल के दौरान:
- मौलिक अधिकार छीन लिए गए
- हजारों लोग जेलों में डाले गए
- अख़बारों पर ताले लगे
- न्यायपालिका पर दबाव डाला गया
और सबसे चिंताजनक—
👉 जस्टिस एच.आर. खन्ना को,
सिर्फ़ इसलिए मुख्य न्यायाधीश नहीं बनाया गया
क्योंकि उन्होंने संविधान का साथ दिया।
यह लोकतंत्र नहीं था।
यह सत्ता का भयावह तांडव था।
9. राजीव गांधी और शाहबानो मामला: न्याय बनाम वोट बैंक
प्रधानमंत्री मोदी ने शाहबानो केस का उल्लेख किया।
सुप्रीम कोर्ट ने:
- एक बुज़ुर्ग महिला को न्याय दिया
लेकिन सरकार ने:
- वोट बैंक की राजनीति के लिए
- अदालत के फैसले को पलट दिया
यह संविधान की भावना के साथ विश्वासघात था।
यह संदेश गया कि—
👉 न्याय नहीं, राजनीति प्राथमिकता है।
10. भाषण का सार: संविधान नाम की ढाल, सत्ता का हथियार नहीं
प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में किसी व्यक्ति पर व्यक्तिगत हमला नहीं किया।
उन्होंने इतिहास के तथ्यों को रखा।
उनका मूल संदेश था:
- संविधान सत्ता को सीमित करता है
- सत्ता संविधान को नियंत्रित नहीं कर सकती
- लोकतंत्र केवल चुनाव नहीं, संस्थाओं का सम्मान है
निष्कर्ष: लोकतंत्र याद रखने से बचता है, भूलने से नहीं
यह भाषण हमें याद दिलाता है कि—
लोकतंत्र सबसे ज़्यादा खतरे में तब होता है
जब उसके पुराने ज़ख्म भुला दिए जाते हैं।
संविधान की रक्षा केवल किताबें पढ़ने से नहीं होती,
बल्कि इतिहास से सीख लेने से होती है।
अगर हम भूल गए कि
आपातकाल क्यों गलत था,
न्यायपालिका क्यों स्वतंत्र होनी चाहिए,
और अभिव्यक्ति की आज़ादी क्यों ज़रूरी है—
तो वही गलतियाँ दोहराई जाएँगी।
संविधान केवल दस्तावेज़ नहीं है।
यह देश की आत्मा है।
और आत्मा की रक्षा
सिर्फ़ कानून से नहीं,
चेतना से होती है।










