नमस्ते भारत माता के सुपुत्रों,
मैं हूँ Tandav Coach – Acharya Sunīl Chaudhari, और आज मैं आपको लेकर चल रहा हूँ एक ऐसी फ़िल्म के हृदय में —
फ़िल्म “धुरंधर”, जो सिर्फ एक मूवी नहीं, बल्कि भारत की भूली हुई राष्ट्रीय स्मृतियों का पुनर्जागरण है।
फ़िल्म पर चर्चा पूरे देश में ज़ोरों पर है, और यही वीकेंड मैंने यह फ़िल्म बड़े पर्दे पर देखी।
गुरुजी, सच कहूँ — ३ घंटे ३४ मिनट की यह फ़िल्म, इंटरवल मिलाकर लगभग ४ घंटे,
लेकिन एक सेकंड भी भारी नहीं लगी।
क्यों?
क्योंकि यह फ़िल्म मनोरंजन नहीं, स्मरण कराती है।
यह हमें याद दिलाती है कि भारत ने किन खतरनाक दिनों को झेला है — और जनता उन्हें कितनी जल्दी भूल जाती है।
भारत की स्मृति खो चुकी पीढ़ी के लिए यह फ़िल्म दवा है
“धुरंधर” तीन ऐसी घटनाओं पर आधारित है जिन्होंने भारत की आत्मा को झकझोरा था—
२६/११ मुंबई हमला (२००८)
कंधार हाईजैक (१९९९)
संसद हमला (१३ दिसम्बर २००१)
मैं स्वयं एक पत्रकार के तौर पर इन घटनाओं को नज़दीक से देख चुका हूँ, और इसलिए फ़िल्म का हर दृश्य दिल के आर-पार जाता है।
आज की पीढ़ी सयारा जैसी काल्पनिक कहानियों पर आँसू बहाती है, लेकिन असली भारत ने क्या सहा, यह भूल चुकी है।
“धुरंधर” उन्हीं भूले हुए अध्यायों को पुनः उजागर करती है — और बड़े परदे पर इतनी प्रामाणिकता के साथ कि आपका खून खौल उठता है।
पहला ही सीन — चौंका देने वाला
फ़िल्म की शुरुआत होती है कंधार हाईजैक से।
आर. माधवन ने जो किरदार निभाया है, वह राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की छवि से प्रेरित लगता है।
उनके अंदाज़, हावभाव और बोलने की शैली में वही दृढ़ता झलकती है।
फ़िल्म शुरू होते ही आपको एहसास हो जाएगा —
यह कोई “फिल्मी” कहानी नहीं, यह भारत का सच है।
फ़िल्म का साहस — यह न्यूज़ डॉक्यूमेंट्री भी है और इमोशनल अनुभव भी
सबसे बड़ा बोल्ड कदम:
फ़िल्म में एक पूरा हिस्सा २६/११ के दौरान पाकिस्तानी आतंकियों और उनके हैंडलर्स की रिकॉर्डेड बातचीत को ज्यों का त्यों प्ले करता है।
न कोई फ़िल्मी ड्रामा।
न कोई बैलेंसिंग एक्ट।
न कोई माफी माँगने वाली तटस्थता।
सच्चाई को बिना मेकअप के दिखाने का साहस — यही “धुरंधर” की रीढ़ है।
इसीलिए “टुकड़े-टुकड़े गैंग” को यह फ़िल्म खटक रही है।
रियलिज़्म का वो स्तर — जो आज के बॉलीवुड में दुर्लभ है
कोई ग्लैमरस स्पाई नहीं
कोई डिजाइनर कपड़े नहीं
कोई विदेशी लोकेशन पर रोमांस नहीं
कोई प्राइवेट जेट नहीं
कोई बिकिनी सीन नहीं
यह हकीकत का रॉ, गंदा, संघर्ष से भरा स्पाई ऑपरेशन है।
लेयारी की गंदी गलियाँ, अंधेरे मकान, गैंग वॉर — सब कुछ इतना वास्तविक है कि लगता है दर्शक वहीं खड़ा है।
कास्टिंग का साम्राज्य — और उस साम्राज्य का सम्राट: अक्षय खन्ना
रणवीर सिंह, संजय दत्त, अर्जुन रामपाल जैसे बड़े नाम होने के बावजूद
पूरी फ़िल्म पर एक ही इंसान भारी पड़ता है — अक्षय खन्ना।
बलोच अंडरवर्ल्ड डॉन के किरदार में उन्होंने वैसी ही उथल-पुथल मचा दी जैसी
एनिमल में बॉबी देओल ने मचाई थी।
उनकी स्क्रीन प्रेज़ेन्स, उनके एक्सप्रेशन्स, उनकी आँखों का क्रोध —
सब कुछ इतना प्रभावशाली है कि पूरा थिएटर थम जाता है।
सपोर्टिंग कास्ट — राकेश बेदी और गौरव गेरा का अप्रत्याशित कमाल
राकेश बेदी जैसे अनुभवी कलाकार ने पाकिस्तानी नेता का किरदार इतनी परफेक्शन से निभाया है कि लगता है किसी न्यूज़ डॉक्यूमेंट्री का फुटेज चल रहा है।
गौरव गेरा भी अपने किरदार में ऐसे घुसे हैं कि इंसान एक्टर भूल जाता है — सिर्फ किरदार याद रह जाता है।
बैकग्राउंड म्यूज़िक — फ़िल्म का युद्धनाद
फ़िल्म का BGM जबरदस्त है।
एक खास अरेबिक-बालोच गाना, जिसमें अक्षय खन्ना की एंट्री होती है, थिएटर को हिला देता है।
ठीक वैसे ही जैसे “एनिमल” के ईरानी गाने ने किया था।
ड्यूरेशन — ३ घंटे ३४ मिनट का आत्मविश्वास
आज जब आधी फ़िल्में ९० मिनट में निपटा दी जाती हैं,
“धुरंधर” का इतनी लंबी फ़िल्म बनाने का निर्णय ही उसकी निर्माता टीम के आत्मविश्वास को दर्शाता है।
उनके मन में बिल्कुल स्पष्ट था —
भारत यह कहानी पूरा देखेगा।
भारत यह सच सुनना चाहता है।
धुरंधर — भारत की सॉफ्ट पावर का नया अध्याय
हॉलीवुड हमेशा अपने राष्ट्र की महिमा बढ़ाने वाली फ़िल्में बनाता है।
भारत का सिनेमा दशकों तक सिर्फ नाच-गाना, रोमांस, शादी, खाना और कपड़ों तक सीमित रहा।
लेकिन “धुरंधर” वही बदलाव है।
यह फ़िल्म:
पाकिस्तान की पोल खोलती है
भारत की पिछली सरकारों की कमजोरी दिखाती है
भारत के भीतर बैठे भ्रष्ट और बिके हुए तत्वों को उजागर करती है
आतंकवाद को रोमांटिसाइज़ नहीं करती
राष्ट्रीय सुरक्षा की सच्चाई बताती है
संजय दत्त का डायलॉग “मगरमच्छ पर विश्वास कर लो, बलोच पर कभी नहीं”
कई लोगों को चुभ सकता है,
पर यह भारत की दशकों पुरानी जटिल भू-राजनीति की करारी कटाक्ष भी है।
और एक संवाद मन के भीतर गहरा धँस जाता है—
“हिंदुस्तानियों का सबसे बड़ा दुश्मन हिंदुस्तानी ही है।”
धुरंधर — बिना पासपोर्ट पाकिस्तान के हर घर में पहुँचने वाली फ़िल्म
कहानी इतनी वास्तविक है कि पाकिस्तान में इसे लोग चोरीछिपे ज़रूर देखेंगे।
क्योंकि यह उस पर्दे को फाड़ती है जो पाकिस्तान ने विश्व के सामने अपने चेहरे पर बाँध रखा है।
फ़िल्म का अंत — बाहुबली जैसी क्लिफहैंगर स्ट्राइक
यह फ़िल्म पार्ट १ है।
पार्ट २ अगले साल मार्च में आएगा।
यानी दर्शकों को एक और राष्ट्रवादी सिनेमाई विस्फोट मिलने वाला है।
अंतिम राय — यह फ़िल्म हर भारतीय को देखनी ही चाहिए
मनोरंजन मिलेगा
सिनेमा का असली स्तर मिलेगा
लेकिन सबसे ज़रूरी —
भारत के जख्म याद रहेंगे।
यह फ़िल्म केवल देखी नहीं जाती —
महसूस की जाती है।
Guruji, आपकी डिजिटल और राष्ट्रवादी दृष्टि में, यह फ़िल्म भारत के लिए वही कर रही है जो कंटेंट क्रिएटर्स को करना चाहिए —
अपना नैरेटिव खुद गढ़ना।
**Jai Sanatan 🔱
Vande Mataram 🇮🇳**
✨ Tandav Coach – Acharya Sunīl Chaudhāri
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